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"My art is my search for the moments beyond the ones of self knowledge. It is the rhythmic fantasy; a restless streak which looks for its own fulfillment! A stillness that moves within! An intense search for my origin and ultimate identity". - Meena

Meena Chopra - Poetry and Art

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Tuesday 19 July 2011

तीर्थ, Teerth

 Pastel on Paper
by Meena
सौंधी हवा का झोंका
मेरे आँचल में 
फिसल कर आ गिरा।
     वक्त का एक मोहरा हो गया।
     और फिर
     फ़िज़ाओं की चादर पर बैठा
     हवाओं को चूमता
     आसमानों की सरहदों में कहीं                     

जा के थम गया।
एहसास को एक नई खोज मिल गयी।
एक नया वजूद                                       
मेरी देह से गुज़र गया।
               
  आसक्ति से अनासक्ति तक की दौड़,
    भोग से अभोग तक की चाह,
    जीवन से मृत्यु तक की                                
प्रवाह रेखा के बीच की
दूरियों को तय करती हुई मैं
इस खोने और पाने की होड़ को
अपने में विसर्जित करती गई।

 

न जाने वह चलते हुए                                  
कौन से कदम थे
        जो ज़मीन की उजड़ी कोख में
          हवा के झोंके को पनाह देते रहे।
            इन्हीं हवाओं के घुँघरुओं को
              अपने कदमों में पहन कर
              मैं जीवन रेखा की सतह पर
 चलती रही — चलती रही —

 कभी बुझती रही                                       
कभी जलती रही।


 

sau.ndhii hawaa kaa jho.nkaa
mere aa.nchal me.n
phisal kar aa giraa!

waqt kaa ek muharaa ho gayaa
aur phir
fizaao.n kii chaadar par baiThaa
hawaao.n ko chuumataa
aasmaano.n kii sarahado.n me.n kahii.n
jaa ke tham gayaa
                      ehasaas ko ek naii khoj mil gayii.
ek nayaa wajood
merii deh se guzar gayaa

aaskti se anaasakti tak kii dau.D,
bhog se abhog tak kii chah,
jiivan se mrityu tak kii
prawaha rekhaa ke biich kii
duuriyo.n ko tay kartii huii mai.n

Sunday 22 May 2011

माणिक - White Canvas


चित्र - मीना द्वारा निर्मित
Drawing by Meena 

सपनों के सपाट कैनवास पर
रेखाएँ खींचता
असीम स्पर्श तुम्हारा
कभी झिंझोड़ता
कभी थपथपाता
कुछ खाँचे बनाता
आँकता हुआ चिन्हों को
रंगों से तरंगों को भिगोता रहा
एक रात का एक मख़मली एहसास।


     कच्ची पक्की उम्मीदों में बँधा
        सतरंगी सा उमड़ता आवेग
          एक छलकता, प्रवाहित इंद्रधनुष
          झलकता रहा गली-कूचों में
        बिखरी सियाह परछाइयों
     के बीच कहीं दबा दबा।


                रात रोशन थी
      श्वेत चाँदनी सो रही थी मुझमें
                    निष्कलंक!
                  अँधेरों की मुट्ठी में बंद
              जैसे माणिक हो सर्प के
           फन से उतरा हुआ।
 
सुबह का झुटपुटा
झुकती निगाहों में
बहती मीठी धूप
थम गया दर्पण दिन का
अपने अक़्स में गुम होता हुआ।

और तब
थका-हारा, भुजंग सा
दिन का यह सरसराता धुँधलका
सरकता रहा परछाइयों में प्रहर - प्रहर।
नींद में डूबी अधखुली आँखों के बीच
फासलों को निभाता यूँ दरबदर
साथ चलता रहा मेरे
एकटक आठों प्रहर।

(भावार्थ "वाईट कैनवास"
संकलन "सुबह का सूरज अब मेरा नहीं है" में प्रकाशित) 


 


White Canvas
 
Your vivid stroke
etched in my memory
bestirred my stark white canvas.
A passing night clasped me
replete with colours.
Raw impulses wide awake
splashed shades
tinting the sheet
toning the moods.

 A splendor bedded
with me all night.

A river
oozed out in heat.
My opaque vision.
grasped the forthcoming dawn.

A fatigue

tarried within me
throughout the day.
(from collection"Ignited Lines")

Wednesday 18 May 2011

क्या था वह?


Drawing by Meena chopra
सिलेटी शाम के
   ढलते रंग
     निःशब्द, निशाचरी, निरी रात
         उदासीन, तठस्थ सफेद चेहरे
        अपरिचित नाम
        अनजान शब्द
         खड़े थे रूबरू हमारे।

        क्या था वह —?
         शायद कोई अनुनाद —?
          जिसे तुम छू भर कर निकल गए
           और मैं देख भी न पाई।
            कोलाहल की धूल से भरी
            इन आँखों में
            केवल थी तो कालिख ही
         शोर की धुन्ध हमें टिकटिकी लगाये
        लगातार देखती थी |

        शायद एक शुरूआत के छोर पर      
            खड़े होकर हम
       दूर किसी अंत को समेटते हुए
      फिर एक बार
      एक नई आस के करीब
       बना रहे थे
        एक नया सा नसीब।
(Transcreated from Greying Evening
-Earlier published in "Ignited Lines")


Tuesday 19 April 2011

स्पर्श


यहीं से उठता है
 वह नगाड़ा
 वह शोर
  वह नाद                                  

जो हिला देता है
        पत्थरों को
         झरनों को
          आकाश को
   वही सब जो मुझमें
            धरा है।
       सिर्फ़ नहीं है
     तो एक स्पर्श
 जहाँ से              
यह सब            
उठता है|   


(कविता संकलन:  
"सुबह का सूरज
अब मेरा नहीं है!")


थिरकन


प्रकृति की लय पर
 विचलित शब्दों ने
  संवेदनाओं को प्रेरित किया,
नज़र में उट्ठे पानी की तरंगों में
     भिगो दिया!
कई नए प्रतिबिम्ब उभरे
    कई कहानियाँ भी-
  रूह का इस तरह से
पतझड़ के उड़ते सूखे पत्तों पर
एक नया नृत्य
   और हवाओं पर थिरक-थिरक चलना —
    जीवन का यह कलरव
         कुछ अधूरा सा नहीं है क्या?
  (कविता संकलन "सुबह का सूरज अब मेरा नहीं है!")

Monday 11 April 2011

कविता कोश - मीना चोपड़ा

अमावस को
in reference to:
"अमावस को / मीना चोपड़ा उन्मुक्त / मीना चोपड़ा ओस की एक बूँद / मीना चोपड़ा और एक अंतिम रचना! / मीना चोपड़ा और कुछ भी नहीं / मीना चोपड़ा कविता / मीना चोपड़ा कुछ निशान वक़्त के / मीना चोपड़ा जीवन गाथा / मीना चोपड़ा धुआँ / मीना चोपड़ा सर्द सन्नाटा / मीना चोपड़ा स्पर्श / मीना चोपड़ा"
- मीना चोपड़ा - Kavita Kosh (view on Google Sidewiki)

मीना चोपड़ा की तीन कविताएं

दुशाला
in reference to:
"दुशाला अँधेरों का दुशाला मिट्टी को मेरी ओढ़े"
- गवाक्ष: September 2010 (view on Google Sidewiki)

अनुभूति में मीना चोपड़ा की कविताएँ

मुट्ठी भर वक़्त
कुछ पंख यादों के
बटोर कर बाँध लिए थे
रात की चादर में मैंने।
in reference to:
"मुट्ठी भर -"
- मीना चोपड़ा की रचना (view on Google Sidewiki)

मुट्ठी भर आरज़ू


जीवन ने उठा दिया

चेहरे से अपने

शीत का वह ठिठुरता नकाब

फिर उसी गहरी धूप में

वही जलता सा शबाब

सूरज की गर्म साँसों में

उछलता है आज फिर से

छलकते जीवन का

उमड़ता हुआ रुआब



इन बहकते प्रतिबिम्बों के बीच

कहीं यह ज़िंदगी के आयने की

मचलती मृगतृष्णा तो नहीं?



किनारों को समेटे जीवन में अपने

कहीं यह मुट्ठी भर आरज़ू तो नहीं?

Saturday 2 April 2011

कविता - Kavita




Waqt kee siyahee main
Tumharee roshanee ko bharkar
Samay kee nok per rakkhe
shabdon kaa kagaz per
Kadam kadam chalanaa

ek naiye wajood ko
meri kokh mein rakhkar
Mahir hai kitna
Is kalam kaa
Meri ungaliyon se milkar
Tumhaare saath-saath
Yun sulag sulag chalana



वक्त की सियाही में
तुम्हारी रोशनी को भरकर
समय की नोक पर रक्खे
शब्दों का कागज़ पर
कदम-कदम चलना।
एक नए वज़ूद को
मेरी कोख में रखकर
माहिर है कितना
इस कलम का
मेरी उँगलियों से मिलकर
तुम्हारे साथ-साथ
यूँ सुलग सुलग चलना
- मीना चोपड़ा

Saturday 12 March 2011

दुशाला

अंधेरों का दुशाला
मिट्टी को मेरी ओढ़े
अपनी सिलवटों के बीच
खुद ही सिमटता चला गया
और कुछ झलकती
परछाइयों की सरसराहट,
सरकती हुई
इन सिलवटों में
गुम होती चली गयी,
मेरी नज़रों में सोई हुई
सुबह के कुछ आंसू
आँखों के किनारों से छलक पड़े|

देखो तो सही!
पूरब की पेशानी से उगती
मखमली रोशनी के उस टुकड़े ने
हरियाली के हसीन चेहरे पर
यह कैसी शबनम बिखेर दी है?
शाम के वक़्त
जो शाम के प्याले में भरकर
अँधेरी रात के नशीले होंठों का
जादूई जाम बना करती है|

-मीना चोपड़ा

Monday 7 March 2011

सर्द सन्नाटा

सुबह के वक़्त
आँखें बंद कर के देखती हूँ जब
तो यह जिस्म के कोनो से
ससराता हुआ निकल जाता है
सूरज की किरणे चूमती हैं
जब भी इस को
तो खिल उठता है यह
फूल बनकर
और मुस्कुरा देता है
आँखों में मेरी झांक कर

सर्द सन्नाटा

कभी यह जिस्म के कोनो में
ठहर भी जाता है
कभी गीत बन कर
होठों पे रुक भी जाता है
और कभी
गले के सुरों को पकड़
गुनगुनाता है
फिर शाम के
रंगीन अंधेरों में घुल कर
सर्द रातों में गूंजता है अक्सर

सर्द सन्नाटा

मेरे करीब
आ जाता है बहुत
बरसों से मेरा हबीब
सन्नाटा

-मीना चोपड़ा

Wednesday 9 February 2011

A Loving Note - Ishq - इश्क़!


A Loving Note

Draped in the shroud
Of the wet clouds
Hidden and confined
in the dark cold coffins.
Sunshine sulked
throughout the winter.
The blazing skyline
continued to burn till it set
in spring.

Who was that?
kept gazing!
From the edge of my eyelids
till the shroud slit
coffin ripped and flew.
grave dawned in the space.
Was that a broken bit
of a loving tearlet?
A vast ocean
or a missed note.
an ongoing symphony
Streaming in time
- Meena

(Transcreated from my poem below)


इश्क़!

कफन में लिपटा बादलों के
छुपता सूरज
अँधेरी क़ब्र में सो चुका था
न जाने कब से
अपने आप से रूठा सूरज

एक आग के दरिया में
बहते किनारे उफ़क के
न जाने जलते रहे किसके लिए
दिन के ढल जाने तक

कौन था यह?
न जाने कबसे
खड़ा था जो सामने बाहें पसारे
पौ के फटने और भोर के हो जाने तक!
कब्र के फटने और कफ़न के उड़ जाने तक!

ओस की बूँद में बैठा छिपकर साँसे लेता
इश्क का कोई टूटा हुआ
टुकड़ा है शायद
किसी बिसरे हुए गीत का
कोई भटका हुआ
मुखड़ा है शायद!

- मीना
kafan me lipata badlon ke
chhupata suraj
andheri kabr me
so chuka tha
na jaane kab se
apne aap se rootha suraj
ek aag ke dariya me
bahte kinare ufak ke
na jaane jalte rahe
kiske liyedin ke dhal jaane tak
kaun tha wah?
na jaane kab se
khada tha jo samne haath pasare
pau ke phatne
aur bhor ke ho jane tak
kabr ke phatne
aur kafan ke ud jane tak.
Os ki boond me betha
chhipkar sanse leta
ishq ka koi tuta hua
tukada hai shayad
kisi bisare hue geet ka koi
bhataka hua
mukhada hai shayad

-© Meena Chopra (above drawing is by Meena Chopra)
- From upcoming collection 'Subeh ka Suraj ab Mera Nahin Hai'.

Monday 7 February 2011

एक सीप, एक मोती - Ek Seep Ek Moti

बूँदें!
आँखों से टपकें
मिट्टी हो जाएँ।
आग से गुज़रें
आग की नज़र हो जाएँ।
रगों में उतरें
तो लहू हो जाएँ।
या कालचक्र से निकलकर
समय की साँसों पर चलती हुई
मन की सीप में उतरें
और मोती हो जाएँ।
- Meena Chopra



boonden !!
aankhon se tapken
mitti ho jaayen.
aag se guzaren
aag ki nazar ho jaayen.
ragon me utren
to lahoo ho jaayen.
ya kaalchakr se nikal kar
samaya ki sanson par chalti huai
Man ki seep me utren
aur moti ho jaayen
- Meena Chopra
Drawing by Meena Chopra

सार्थकता

कौन थी वह
जो एक बिन्दु सी
सिमट के सो रही थी पल-पल
मीठी सी नींद को
आंखों में भरकर
कोख की आंच में
मां की सर रखकर।

चाहती थी वह
इस नये संसार में
खुलकर भ्रमण करना
एक नये वजूद को
पहन कर तन पर
ज़िन्दगी की चोखट पर
पहला कदम रखना
और फिर
इन जुड़ते और टूटते पलों
से बनी सीढ़ी पर
लम्हा-लम्हा चढ़ना।

क्या था यही
जन्म को अपने
सार्थक करना?

-मीना चोपड़ा
(मेरी बेटी टिया उर्फ़ ताबीर के लिए) 

Sunday 6 February 2011

समर्पित - samarpit




मै तुम्हारे संयम को
अपने में धारण कर
निरंतर सुलगती लौ से
जीवनधारा को निष्कलंक करती हुई
इस अविरत जीवन अग्नि में
अनादि तक समर्पित हूँ।
सुबह का सूरज
अब मेरा नहीं है।

mai.n tumhaare sa.nyam ko
apane me.n dhaaraN kar
nirantar sulagatii lau se
jiivan dhaara ko niShkala.nk kartii huii
is avirat jiivan agni me.n
anaadi tak samarpit huu.n

subah kaa suuraj
ab meraa nahii.n hai|

Wednesday 14 April 2010

कुछ निशान वक्त के

झील से झांकते आसमान की गहराई में
बादलों को चूमती पहाड़ों की परछाईयां
और घने पेड़ों के बीच फड़फड़ाते अतीत के चेहरे
झरनो के झरझराते मुख से झरते मधुर गीत संगीत
हवाओं पर बिखरी गेंदे के फूलों की सुनहरी खुशबू
दूर कहीं सजदों में झुकी घंटियों की गूंज
बांसुरी की धुन में लिपट कर चोटियों से
धीमे—धीमे उतरती मीठी धूप।

पानी में डुबकियां लगाती कुछ मचलती किरणे
और उन पर छ्पक—छपक चप्पूओं से सांसे लेती
ज़िन्दगी की चलती नौका
रात की झिलमिलाहटों में तैरती चुप्पियों की लहरें
किनारों से टकराकर लौटती जुगनुओं की वो चमक।

उम्मीदों की ठण्डी सड़क पर हवाओं से बातें करती
किसी राह्गीर के सपनों की तेज़ दौड़ती टापें
पगडंडियों को समेटे कदमो में अपने
पहूंची हैं वहां तक—जहां मंज़िलों के मुकाम
अक्सों में थम गये हैं
झील की गहराई में उतरकर
नींद को थपथपाते हुए
उठती सुबह की अंगड़ाई में रम गये हैं।


*यह कविता मेरे बचपन और
जन्मस्थल नैनीताल से प्रेरित है।
Audio of the above poem.

Tuesday 13 April 2010

बेनाम - benaam

सुबह ने जब अपनी आँखें बंद कर ली थीं
और रात सपनों को साथ लिए बुझने लगी थी
उस वक्त समय की कोख से
एक अनाम से रिश्ते ने जन्म लिया था
जो ज़मीन के गुनाहों की
दहलीज़ को लांघकर
अपने नाम को कायनात की
परछाईं मे ढूँढ़ता हुआ
अँधरों मे खो गया था!

वह जिसका कोई नाम नहीं था
क्या वह मेरा अपना भी नहीं था — ?


subah ne jab apanii aa.nkhe.n ba.nd kar lii thii.n
aur raat sapno.n ko liye bujhane lagii thii
us waqt samay kii koh se
ek anaam rishte ne janm liyaa thaa
jo zamiin ke gunaaho.n kii
dahleez ko laa.nghkar
apne naam ko kaayanaat kii
parChaaii.n me.n Dhu.n.Dhtaa huaa
a.ndhero.n me.n kho gayaa thaa.!

wah jiskaa koi naam nahii.n thaa
kyaa wah meraa apanaa bhii nahii.n thaa - ?
-Meena chopra
Painting by meena

धुआँ - dhuaan

uThta hai
miTTii ke antaHakaraN se
Wah dhuaan—dhuaan
kyuon hai?
miTTIii johathalii semerii lag kar
badal jaatii thii
ek aise KshN mein
Jiska na to koi aadi thaa
na hii ant
Usii miiTTI se uThhata jo aaj
Wah dhuaan kyon hai?
-Meena Chopra


उठता है मिट्टी के
अन्तःकरण से
वह धुआँ धुआँ क्यों है?
मिट्टी जो मेरी
हथेली से लग कर
बदल जाती थी
एक ऐसे क्षण में
जिसका न कोई आदि था
न ही अन्त।
उसी मिट्टी से
उठता है जो आज
वह धुआँ क्यों है?
-मीना चोपडा
Drawing by Meena Chopra
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